विन्नी की विलेन मम्मी!
vinni ki villion mummy अपनी जिस खूबी पर आप मन ही मन खुश हो रहे होतें हैं…प्रकृति आपके उसी ग़ुण की ऐसी परीक्षा लेगी… कि आपको खुद लगेगा ..ये किस बात की सज़ा और क्यों? . सन 2016, स्थान: आगरा समय: शाम के 6 से 7 के बीच का समय होगा, कहते हैं अपनी जिस खूबी पर आप मन ही मन खुश हो रहे होतें हैं…प्रकृति आपके उसी ग़ुण की ऐसी परीक्षा लेगी… कि आपको खुद लगेगा ..ये किस बात की सज़ा और क्यों? ..लोग कहते जरूर हैं या तो ऐसी सिचुएशन से भाग जाइये या लड़िये…मगर हालात ऐसे बनतें हैं कि लड़ना ही पड़ता है” .भागने का ऑप्शन बताना या सोचना फिजूल है….दूसरों के दुख को अपना दुख समझने की जिस आदत को मैं अच्छा मानती थी…उसके कारण इतने बड़े फसाद में फंस जाऊँगी…मैंने सपने में भी नहीं सोचा था… मैं उन दिनों पोस्ट ग्रेजुएशन के एग्जाम दे रही थी…जैसा कि जगजाहिर है उत्तर प्रदेश में लाइट आती कम है… जाती ज्यादा है, 3 दिनों बाद मेरा एग्जाम था, और गर्मी में बिना लाइट के पढ़ाई करना बहुत कोशिशों के बाद भी सम्भव नहीं हो पा रहा था। साथ ही एग्जाम का प्रेशर बेचैन कर रहा था सो अलग।“सारे बच्चे छत पर पढ़ते मिलेंगे इस समय, तुम भी छत पर क्यों नहीं पढ़ लेती..” मेरी माँ ने मुझे लाइट न होने के कारण झुंझलाते हुए देखकर कहा..छत पर पढ़ना तो बहुत दूर की बात गई …मुझे ये भी एहसास हो जाये कि कोई मुझे पढ़ते देख रहा है तो एक मिनट भी मेरा मन पढ़ने में नहीं लगेगा, भगवान की पूजा में ध्यान और पढ़ाई मैं ऐसे कभी नहीं कर पाती..“होता क्या जा रहा है तुम्हें …बात सुन कर अनसुनी कैसे कर देती हो”…उन्होंने फिर कहा..“अरे नहीं …जा रही हूँ..बस्स मॉडल पेपर नहीं दिख रहा था…” मैं उनके गुस्से से बचने के लिए झूठ बोली, और बिना एक पल और गवाएं मैंने इकोनॉमिक्स का मॉडल पेपर उठाया और छत पर चल दी..“गुजंन को देखो…कितनी होशियार लड़की है..जब देखो पढ़ती हुई दिखेगी..कुछ सीखो उससे” मैंने छत पर जाने के लिए पहली सीढ़ी पर पैर रखा ही था, कि ये शब्द मेरे कानों में पड़े। एक छत को छोड़कर अगली छत पर सच में गुँजन आँखों के सामने छोटी सी किताब रख कर टहलते हुए पढ़ रही थी…मोहल्ले की सारी लड़कियाँ उससे चिढ़ती थीं…गुँजन की इस आदत की वजह से उनपर डाँट जो पड़ती थी…. कुछ वक्त पहले की भी बात होती तो मैं गुँजन को ऐसे पढ़ते देखकर बहुत हँसती …लेकिन उन्हीं दिनों मेरे घर पर सिन्हा आँटी और अंकल का आना अक्सर लगा रहता था..सिन्हा आँटी को कैंसर था जिसके ट्रीटमेंट के चलते उनके सिर के सारे बाल झड़ गए थे… मैंने इतने नजदीक से तब तक इस बीमारी का ऐसा भयंकर रूप नहीं देखा था…मेरे दिमाग पर इसका बहुत असर पड़ा था, किसी की भी अजीब हरकत या आदत देखकर मेरे मन में बस यही आता ना जाने कौन …कैसे हालात से गुजर रहा हो …बेचैनी में मैंने छत पर चहलकदमी शुरू कर दी, इक्का-दुक्का बच्चे और भी पढ़ते नजर आए, “क्या यार तुम्हारे ही नखरे हैं, क्या ये बच्चे पास नहीं होते हैं ?…बहुत अच्छी ना सही..थोड़ी पढ़ाई तो होगी ही..कोशिश तो करो” ये बात मैंने खुद से ही कही और किताब खोल ली.“हा हा छत पर बैठकर पढ़ाई…वाह इतनी ही पढाकूं होती तो टॉप ना करती ..आस पास के लोग सोच रहे होंगे कितनी होशियार है लड़की”ये आवाज मेरे अंतर्मन से आयी..लोगों का अंर्तमन ज्यादातर उनके पक्ष में होता है …मेरा अन्तर्मन मेरे ही खिलाफ रहता है ..वो भी हमेशा…झुंझलाते हुए मैंने किताब बन्द कर दीमुझसे नहीं होगा…“हाइ सोना…” आवाज कानों में पड़ते ही मेरी नजर छत की ओर आती हुई सीढ़ियों पर गयी …देखा तो विनीता चहकती हुई चली आ रही है..उसे देखकर मेरे चेहरे पर भी मुस्कान आ गयी …हम अपने फ्रेंड या किसी पसंदीदा इंसान को कब उस से जुड़ी चीजों से पहचानने लगतें हैं हमें खुद पता नहीं लगता..बिनीता के लंबे ईयरिंग्स और घुटनों से भी लंबे बाल मेरे लिए उसकी पहचान बन गए थे…हों भी क्यों ना..उससे पहले और उसके बाद आज तक मैंने अपने सर्कल में किसी के बाल इतने लंबे नहीं देखे…उस दिन भी ऐसा लग रहा था जैसे उसने सफेद मोतियों की माला को बीच मे से तोड़कर, दोनों कानों में पहन लिया था…‘और उस दिन बालों का जूड़ा बनाया हुआ था…औसत आँखे और गोल नाक की शेप के नीचे पतले होंठ…मेरे पास आकर उसने अपना एक हाथ मेरे हाथ में रख दिया…ये उसकी अजीब आदत थी… जब वो मुझे पहली बार मिली तो उसने अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया … जाहिर तौर पर ये हाथ मिलाने का तरीका है सो मैंने भी हाथ बढ़ा दिया..लेकिन ये क्या.. उसने अपना हाथ बस्स मेरे हाथ पर रख कर छोड़ दिया था…उस वक़्त ये कुछ अजीब सा ही था मेरे लिए…खैर मैंने उसे ना तो तब ना, उसके बाद कभी टोका..मुझे पता है आजकल निश्छलता मिलना अपवाद है ..इसे टोककर क्यों कृत्रिम बनाया जाए…….मैं कुछ बोल पाती इससे पहले ही मेरी नजर उसकी माँ की ओर चली गयी …मुझे उनसे चिढ़ थी……अब तक इतनी चिढ़ जाहिर तौर पर किसी महिला से कभी नहीं हुई है…उसकी ठोस वजह भी है..कुछ सालों पहले उनकी आँत बढ़ना शुरू हो गयी..जिसका ऑपरेशन हुआ और वो महीनों बिस्तर पर रहीं …मेरी माँ की मित्र थी सो, जब मेरी माँ उन्हें देखने गयी मुझे भी साथ लेती गयी..तब ही बिनीता से पहली बार मिलना हुआ…तब मैं हाईस्कूल में थी…बिनीता ने अपने नन्हें हाथों से पूरी ग्रहस्थी का काम संभाल लिया था…जिसमें बिनीता के माता-पिता एक छोटा भाई हर्षित और दादा, दादी भी थे।फिर बाद में उसकी माँ को आराम करने की जो लत लगी तो कभी नहीं छूटी …वो कोई ना कोई बीमारी का बहाना बना कर हर समय बिस्तर पर रहतीं और बिनीता का ध्यान पढ़ाई से हटकर घर के कामों में ऐसा रमा कि उसने हाईस्कूल के बाद पढ़ाई की ही नहीं..या पढ़ने का कारण उसकी माता जी ने छोड़ा ही कहाँ”? और उस पर भी हैरत की बात ये कि, परिवार के किसी भी इंसान को बिनीता के ना पढ़ पाने का रत्तीभर अफसोस